सालम के शहीदों ने जान दे दी, लेकिन जज्बे में नहीं आई कमी
बृजेश तिवारी, अमृत विचार, अल्मोड़ा। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की लड़ाई हालांकि पूरे देश में समानान्तर तरीके से लड़ी गई। लेकिन उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले की दो पीढिय़ों का सारभूत वृत्तांत भारतीय गगन में स्वतंत्र सूर्य के पावन उदय के साथ अपना समर सोपान पूरा कर देश की आने वाली पीढिय़ों के लिए प्रेरक अमर गाथा …
बृजेश तिवारी, अमृत विचार, अल्मोड़ा। स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन की लड़ाई हालांकि पूरे देश में समानान्तर तरीके से लड़ी गई। लेकिन उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले की दो पीढिय़ों का सारभूत वृत्तांत भारतीय गगन में स्वतंत्र सूर्य के पावन उदय के साथ अपना समर सोपान पूरा कर देश की आने वाली पीढिय़ों के लिए प्रेरक अमर गाथा बन गया।
सुविशाल देश के इस छोटे से भूभाग में अभावग्रस्त जीवन जीने के बाद भी यहां के रणबांकुरों ने जिस समर शौर्य, राजनीतिक सूझबूझ और देश भक्ति का परिचय दिया। वह इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हो गया। अल्मोड़ा की ऐतिहासिक जेल गांधी, नेहरू जैसे नेताओं के बंद होने के कारण जहां यह स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक गवाह बनी तो सल्ट, सालम, चनौदा और देघाट के रणबांकुरों का योगदान भी कभी भुलाया नहीं जा सकता।
नौ अगस्त 1942 के गांधी जी करो या मरो उदघोष के बाद अल्मोड़ा जिले के सालम क्षेत्र में भी क्रांति की चिंगारी भड़क उठी थी। सालम क्षेत्र के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राम सिंह धौनी के इलाहाबाद से बीए के डिग्री लेकर वापस आने के बाद से ही वर्ष 1919 से आजादी की लड़ाई का आगाज हो गया था। यह लड़ाई धीरे धीरे परवान चढ़ती गई और आजादी के क्रांतिवीरों की बढ़ती संख्या एक कारवां में तब्दील होती चली गई।
23 अगस्त 1942 को सालम के नौगांव में आजादी के परवाने अंग्रेजी हुकुमत से लोहा लेने के लिए रणनीति तय कर रहे थे। लेकिन तभी अंग्रेज हाकिमों ने सभा पर धावा बोल दिया और अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को गिरफ्तार कर लिया। गुस्साए आजादी के दीवानों ने 25 अगस्त को इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को छुड़ाने के लिए बिगुल फूंक दिया और धामदेव के टीले पर हजारों आजादी के दीवाने एकत्र हो गए। लेकिन यहां भी ब्रितानी हुकुमत ने लोगों को तितर बितर करने के लिए गोलियां चलाई।
जिसमें सालम के दो सपूत नर सिंह धानक और टीका सिंह कन्याल मौके पर ही शहीद हो गए थे। आजादी के रणबांकुरों ने अपने शहादत दे दी लेकिन फिर भी उनका जज्बा कम नहीं हुआ। देश की आजादी तक यहां स्वतंत्रता आंदोलन की ऐसी अलख जगी कि ब्रिटिश हुक्मरानों को लोहे के चने बचाने पड़े। आजदी के बाद से हर वर्ष 25 अगस्त को आजादी की लड़ाई में शहीद इन रणबांकुरों और क्रांतिवारों को याद करने के लिए यहां शहीद दिवस का आयोजन किया जाता है। शहीदों की याद में बनाए गए शहीद स्मारक पर हर साल हजारों लोग यहां आकर स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को श्रद्धाजंलि देते हैं और उनके सपनों को पूरा करने का संकल्प भी लेते हैं।
