अनुपमा का प्रेम…

अनुपमा का प्रेम…

ग्यारह वर्ष की आयु से ही अनुपमा उपन्यास पढ़-पढ़कर मस्तिष्क को एकदम बिगाड़ बैठी थी। वह समझती थी, मनुष्य के हृदय में जितना प्रेम, जितनी माधुरी, जितनी शोभा, जितना सौंदर्य, जितनी तृष्णा है, सब छान-बीनकर, साफ़ कर उसने अपने मस्तिष्क के भीतर जमा कर रखी है। मनुष्य-स्वभाव, मनुष्य-चरित्र, उसका नख दर्पण हो गया है। संसार …

ग्यारह वर्ष की आयु से ही अनुपमा उपन्यास पढ़-पढ़कर मस्तिष्क को एकदम बिगाड़ बैठी थी। वह समझती थी, मनुष्य के हृदय में जितना प्रेम, जितनी माधुरी, जितनी शोभा, जितना सौंदर्य, जितनी तृष्णा है, सब छान-बीनकर, साफ़ कर उसने अपने मस्तिष्क के भीतर जमा कर रखी है। मनुष्य-स्वभाव, मनुष्य-चरित्र, उसका नख दर्पण हो गया है।

संसार में उसके लिए सीखने योग्य वस्तु और कोई नहीं है, सबकुछ जान चुकी है, सब कुछ सीख चुकी है। सतीत्व की ज्योति को वह जिस प्रकार देख सकती है, प्रणय की महिमा को वह जिस प्रकार समझ सकती है, संसार में और भी कोई उस जैसा समझदार नहीं है, अनुपमा इस बात पर किसी तरह भी विश्वास नहीं कर पाती। अनु ने सोचा-वह एक माधवीलता है, जिसमें मंजरियां आ रही हैं, इस अवस्था में किसी शाखा की सहायता लिए बिना उसकी मंजरियां किसी भी तरह प्रफ्फुलित होकर विकसित नहीं हो सकतीं।

इसलिए ढूंढ़-खोजकर एक नवीन व्यक्ति को सहयोगी की तरह उसने मनोनीत कर लिया एवं दो-चार दिन में ही उसे मन प्राण, जीवन, यौवन सब कुछ दे डाला। मन-ही-मन देने अथवा लेने का सबको समान अधिकार है, परन्तु ग्रहण करने से पूर्व सहयोगी को भी (बताने की) आवश्यकता होती है। यहीं आकर माधवीलता कुछ विपत्ति में पड़ गई। नवीन नीरोदकान्त को वह किस तरह जताए कि वह उसकी माधवीलता है, विकसित होने के लिए खड़ी हुई है, उसे आश्रय न देने पर इसी समय मंजरियों के पुष्पों के साथ वह पृथ्वी पर लोटती-पोटती प्राण त्याग देगी।

परन्तु सहयोगी उसे न जान सका। न जानने पर भी अनुमान का प्रेम उत्तरोत्तर वृद्धि पाने लगा। अमृत में विष, सुख में दु:ख, प्रणय में विच्छेद चिर प्रसिद्ध हैं। दो-चार दिन में ही अनुपमा विरह-व्यथा से जर्जर शरीर होकर मन-ही-मन बोली- स्वामी, तुम मुझे ग्रहण करो या न करो, बदले में प्यार दो या न दो, मैं तुम्हारी चिर दासी हूं। प्राण चले जाएं यह स्वीकार है, परन्तु तुम्हें किसी भी प्रकार नहीं छोड़ूंगी।

इस जन्म में न पा सकूं तो अगले जन्म में अवश्य पाऊंगी, तब देखोगे सती-साध्वी की क्षूब्द भुजाओं में कितना बल है। अनुपमा बड़े आदमी की लड़की है, घर से संलग्न बगीचा भी है, मनोरम सरोवर भी है, वहां चांद भी उठता है, कमल भी खिलते है, कोयल भी गीत गाती है, भौंरे भी गुंजारते हैं, यहां पर वह घूमती फिरती विरह व्यथा का अनुभव करने लगी।अनुपमा का प्रेम: शरतचंद्र की कहानी - Story Anupama ka prem by Sharatchandra  | फेमिना हिन्दीसिर के बाल खोलकर, अलंकार उतार फेंके, शरीर में धूलि मलकर प्रेम-योगिनी बन, कभी सरोवर के जल में अपना मुंह देखने लगी, कभी आंखों से पानी बहाती हुई गुलाब के फूल को चूमने लगी, कभी आंचल बिछाकर वृक्ष के नीचे सोती हुई हाय की हुताशन और दीर्घ श्वास छोड़ने लगी, भोजन में रुचि नहीं रही, शयन की इच्छा नहीं, साज-सज्जा से बड़ा वैराग्य हो गया, कहानी किस्सों की भांति विरक्ति हो आई, अनुपमा दिन-प्रतिदिन सूखने लगी, देख सुनकर अनु की माता को मन-ही-मन चिन्ता होने लगी, एक ही तो लड़की है, उसे भी यह क्या हो गया?

पूछने पर वह जो कहती, उसे कोई भी समझ नहीं पाता, होंठों की बात होंठों पे रह जाती। अनु की माता फिर एक दिन जगबन्धु बाबू से बोली,‘अजी, एक बार क्या ध्यान से नहीं देखोगे? तुम्हारी एक ही लड़की है, यह जैसे बिना इलाज के मरी जा रही है।’
जगबन्धु बाबू चकित होकर बोले,‘क्या हुआ उसे?’
‘सो कुछ नहीं जानती। डॉक्टर आया था, देख-सुनकर बोला, बीमारी-वीमारी कुछ नहीं है।’
‘तब ऐसी क्यों हुई जा रही है?’ जगबन्धु बाबू विरक्त होते हुए बोले,‘फिर हम किस तरह जानें?’
‘तो मेरी लड़की मर ही जाए?’

‘यह तो बड़ी कठिन बात है। ज्वर नहीं, खांसी नहीं, बिना बात के ही यदि मर जाए, तो मैं किस तरह से बचाए रहूंगा?’
गृहिणी सूखे मुंह से बड़ी बहू के पास लौटकर बोली,‘बहू, मेरी अनु इस तरह से क्यों घूमती रहती है?’
‘किस तरह जानूं, मां?’
‘तुमसे क्या कुछ भी नहीं कहती?’
‘कुछ नहीं।’

गृहिणी प्राय: रो पड़ी,‘तब क्या होगा? बिना खाए, बिना सोए, इस तरह सारे दिन बगीचे में कितने दिन घूमती-फिरती रहेगी, और कितने दिन बचेगी? तुम लोग उसे किसी भी तरह समझाओ, नहीं तो मैं बगीचे के तालाब में किसी दिन डूब मरूंगी।’
बड़ी बहू कुछ देर सोचकर चिन्तित होती हुई बोली,‘देख-सुनकर कहीं विवाह कर दो; गृहस्थी का बोझ पड़ने पर अपने आप सब ठीक हो जाएगा।’
‘ठीक बात है, तो आज ही यह बात मैं पति को बताऊंगी।’अनुपमा का प्रेम: शरतचंद्र की कहानी - Story Anupama ka prem by Sharatchandra  | फेमिना हिन्दीपति यह बात सुनकर थोड़ा हंसते हुए बोले- कलिकाल है! कर दो, ब्याह करके ही देखो, यदि ठीक हो जाए।’
दूसरे दिन घटक आया। अनुपमा बड़े आदमियों की लड़की है, उस पर सुन्दरी भी है; वर के लिए चिन्ता नहीं करनी पड़ी। एक सप्ताह के भीतर ही घटक महाराज ने वर निश्चित करके जगबन्धु बाबू को समाचार दिया। पति ने यह बात पत्नी को बताई। पत्नी ने बड़ी बहू को बताई, क्रमश: अनुपमा ने भी सुनी।

दो-एक दिन बाद, एक दिन सब दोपहर के समय सब मिलकर अनुपमा के विवाह की बातें कर रहे थे। इसी समय वह खुले बाल, अस्त-व्यस्त वस्त्र किए, एक सूखे गुलाब के फूल को हाथ में लिए चित्र की भांति आ खड़ी हुई। अनु की माता कन्या को देखकर तनिक हंसती हुई बोली,‘ब्याह हो जाने पर यह सब कहीं अन्यत्र चला जाएगा। दो एक लड़का-लड़की होने पर तो कोई बात ही नहीं!’

अनुपमा चित्र-लिखित की भांति सब बातें सुनने लगी। बहू ने फिर कहा,‘मां, ननदानी के विवाह का दिन कब निश्चित हुआ है?’
‘दिन अभी कोई निश्चित नहीं हुआ।’
‘ननदोई जी क्या पढ़ रहे हैं?’
‘इस बार बी।ए। की परीक्षा देंगे।’

‘तब तो बहुत अच्छा वर है।’इसके बाद थोड़ा हंसकर मज़ाक करती हुई बोली,‘परन्तु देखने में ख़ूब अच्छा न हुआ, तो हमारी ननद जी को पसंद नहीं आएगा।’
‘क्यों पसंद नहीं आएगा? मेरा जमाई तो देखने में ख़ूब अच्छा है।’
इस बार अनुपमा ने कुछ गर्दन घुमाई, थोड़ा सा हिलकर पांव के नख से मिट्टी खोदने की भांति लंगड़ाती-लंगड़ाती बोली,‘विवाह मैं नहीं करूंगी।’

मां ने अच्छी तरह न सुन पाने के कारण पूछा,‘क्या है बेटी?’
बड़ी बहू ने अनुपमा की बात सुन ली थी। ख़ूब ज़ोर से हंसते हए बोली,‘ननद जी कहती हैं, वे कभी विवाह नहीं करेंगी।’
‘विवाह नहीं करेगी?’
‘नहीं।’

‘न करे?’ अनु की माता मुंह बनाकर कुछ हंसती हुई चली गई। गृहिणी के चले जाने पर बड़ी बहू बोली,‘तुम विवाह नहीं करोगी?’ अनुपमा पूर्ववत गम्भीर मुंह किए बोली,‘किसी प्रकार भी नहीं।’
‘क्यों?’
‘चाहे जिसे हाथ पकड़ा देने का नाम ही विवाह नहीं है। मन का मिलन न होने पर विवाह करना भूल है!’
बड़ी बहू चकित होकर अनुपमा के मुंह की ओर देखती हुई बोली,‘हाथ पकड़ा देना क्या बात होती है? पकड़ा नहीं देंगे तो क्या लड़कियां स्वयं ही देख-सुनकर पसंद करने के बाद विवाह करेंगी?’अनुपमा का प्रेम: शरतचंद्र की कहानी - Story Anupama ka prem by Sharatchandra  | फेमिना हिन्दी‘अवश्य!’
‘तब तो तुम्हारे मत के अनुसार, मेरा विवाह भी एक तरह की भूल हो गया? विवाह के पहले तो तुम्हारे भाई का नाम तक मैंने नहीं सुना था।’
‘सभी क्या तुम्हारी ही भांति हैं?’

बहू एक बार फिर हंसकर बोली,‘तब क्या तुम्हारे मन का कोई आदमी मिल गया है?’
अनुपमा बड़ी बहू के हास्य-विद्रूप से चिढ़कर अपने मुंह को चौगुना गम्भीर करती हुई बोली,‘भाभी मज़ाक क्यों कर रही हो, यह क्या मज़ाक का समय है?’
‘क्यों क्या हो गया?’
‘क्या हो गया? तो सुनो।।।

’अनुपमा को लगा, उसके सामने ही उसके पति का वध किया जा रहा है, अचानक कतलू खां के क़िले में, वध के मंच के सामने खड़े हुए विमला और वीरेन्द्र सिंह का दृश्य उसके मन में जग उठा; अनुपमा ने सोचा, वे लोग जैसा कर सकते हैं, वैसा क्या वह नहीं कर सकती? सती-स्त्री संसार में किसका भय करती है?

देखते-देखते उसकी आंखें अनैसर्गिक प्रभा से धक्-धक् करके जल उठीं, देखते-देखते उसने आंचल को कमर में लपेटकर कमरबन्द बांध लिया। यह दृश्य देखकर बहू तीन हाथ पीछे हट गई। क्षणभर में अनुपमा बगल वाले पलंग के पाए को जकड़कर, आंखें ऊपर उठाकर, चीत्कार करती हुई कहने लगी,‘प्रभु, स्वामी, प्राणनाथ! संसार के सामने आज मैं मुक्त-कण्ठ से चीत्कार करती हूं, तुम्ही मेरे प्राणनाथ हो! प्रभु तुम मेरे हो, मैं तुम्हारी हूं।

यह खाट के पाए नहीं, ये तुम्हारे दोनों चरण हैं, मैंने धर्म को साक्षी करके तुम्हें पति-रूप में वरण किया है, इस समय भी तुम्हारे चरणों को स्पर्श करती हुई कह रही हूं, इस संसार में तुम्हें छोड़कर अन्य कोई भी पुरुष मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। किसमें शक्ति है कि प्राण रहते हमें अलग कर सके। अरी मां, जगत जननी।।।!’

बड़ी बहू चीत्कार करती हुई दौड़ती बाहर आ पड़ी,‘अरे, देखते हो, ननदरानी कैसा ढंग अपना रही हैं। देखते-देखते गृहिणी भी दौड़ी आई। बहूरानी का चीत्कार बाहर तक जा पहुंचा था,‘क्या हुआ, क्या हुआ, क्या हो गया?’ कहते गृहस्वामी और उनके पुत्र चन्द्रबाबू भी दौड़े आए। कर्ता-गृहिणी, पुत्र, पुत्रवधू और दास-दासियों से क्षण भर में घर में भीड़ हो गई।

प्रेम आखिर है क्या, और हमारे जीवन में प्रेम का क्या महत्व है ?

अनुपमा मूर्छित होकर खाट के समीप पड़ी हुई थी। गृहिणी रो उठी,‘मेरी अनु को क्या हो गया? डॉक्टर को बुलाओ, पानी लाओ, हवा करो इत्यादि। इस चीत्कार से आधे पड़ोसी घर में जमा हो गए।’
बहुत देर बाद आंखें खोलकर अनुपमा धीरे-धीरे बोली,‘मैं कहां हूं?’
उसकी मां उसके पास मुंह लाती हुई स्नेहपूर्वक बोली,‘कैसी हो बेटी? तुम मेरी गोदी में लेटी हो।’

अनुपमा दीर्घ नि:श्वास छोड़ती हुई धीरे-धीरे बोली,‘ओह तुम्हारी गोदी में? मैं समझ रही थी, कहीं अन्यत्र स्वप्न- नाट्य में उनके साथ बही जा रही थी?’ पीड़ा-विगलित अश्रु उसके कपोलों पर बहने लगे।
माता उन्हें पोंछती हुई कातर-स्वर में बोली,‘क्यों रो रही हो, बेटी?’
अनुपमा दीर्घ नि:श्वास छोड़कर चुप रह गई।

बड़ी बहू चन्द्रबाबू को एक ओर बुलाकर बोली,‘सबको जाने को कह दो, ननदरानी ठीक हो गई हैं।’ क्रमश: सब लोग चले गए।
रात को बहू अनुपमा के पास बैठकर बोली,‘ननदरानी, किसके साथ विवाह होने पर तुम सुखी होओगी?’
अनुपमा आंखें बन्द करके बोली,‘सुख-दुख मुझे कुछ नहीं है, वही मेरे स्वामी हैं।।।’
‘सो तो मैं समझती हूं, परन्तु वे कौन हैं?’

‘सुरेश! मेरे सुरेश।।।’
‘सुरेश! राखाल मजमूदार के लड़के?’
‘हां, वे ही।’
रात में ही गृहिणी ने यह बात सुनी। दूसरे दिन सवेरे ही मजमूदार के घर जा उपस्थित हुई। बहुत-सी बातों के बाद सुरेश की माता से बोली- अपने लड़के के साथ मेरी लड़की का विवाह कर लो। सुरेश की माता हंसती हुई बोलीं,‘बुरा क्या है?’

‘बुरे-भले की बात नहीं, विवाह करना ही होगा!’
‘तो सुरेश से एक बार पूछ आऊं। वह घर में ही है, उसकी सम्मति होने पर पति को असहमति नहीं होगी।’
सुरेश उस समय घर में रहकर बी।ए। की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, एक क्षण उसके लिए एक वर्ष के समान था। उसकी मां ने विवाह की बात कही, मगर उसके कान में नहीं पड़ी। गृहिणी ने फिर कहा,‘सुरो, तुझे विवाह करना होगा।’

सुरेश मुंह उठाकर बोला,‘वह तो होगा ही! परन्तु अभी क्यों? पढ़ने के समय यह बातें अच्छी नहीं लगतीं।’
गृहिणी अप्रतिभ होकर बोली,‘नहीं, नहीं, पढ़ने के समय क्यों? परीक्षा समाप्त हो जाने पर विवाह होगा।’
‘कहां?’
‘इसी गांव में जगबन्धु बाबू की लड़की के साथ।’
‘क्या? चन्द्र की बहन के साथ? जिसे मैं बच्ची कहकर पुकारता हूं?’

‘बच्ची कहकर क्यों पुकारेगा, उसका नाम अनुपमा है।’
सुरेश थोड़ा हंसकर बोला,‘हां, अनुपमा! दुर वह?, दुर, वह तो बड़ी कुत्सित है!’
‘कुत्सित कैसे हो जाएगी? वह तो देखने में अच्छी है!’
‘भले ही देखने में अच्छी! एक ही जगह ससुराल और पिता का घर होना, मुझे अच्छा नहीं लगता।’

‘क्यों? उसमें और क्या दोष है?’
‘दोष की बात का कोई मतलब नहीं! तुम इस समय जाओ मां, मैं थोड़ा पढ़ लूं, इस समय कुछ भी नहीं होगा!’
सुरेश की माता लौट आकर बोलीं,‘सुरो तो एक ही गांव में किसी प्रकार भी विवाह नहीं करना चाहता।’
‘क्यों?’
‘सो तो नहीं जानती!’

अनु की माता, मजमूदार की गृहिणी का हाथ पकड़कर कातर भाव से बोलीं,‘यह नहीं होगा, बहन! यह विवाह तुम्हें करना ही पड़ेगा।’
‘लड़का तैयार नहीं है; मैं क्या करूं, बताओ?’
‘न होने पर भी मैं किसी तरह नहीं छोड़ूंगी।’
‘तो आज ठहरो, कल फिर एक बार समझा देखूंगी, यदि सहमत कर सकी।’

अनु की माता घर लौटकर जगबन्धु बाबू से बोलीं,‘उनके सुरेश के साथ हमारी अनुपमा का जिस तरह विवाह हो सके, वह करो!’
‘पर क्यों, बताओ तो? राम गांव में तो एक तरह से सब निश्चिन्त हो चुका है! उस सम्बन्ध को तोड़ दें क्या?’
‘कारण है।’
‘क्या कारण है?’
‘कारण कुछ नहीं, परन्तु सुरेश जैसा रूप-गुण-सम्पन्न लड़का हमें कहां मिल सकता है?

फिर, मेरी एक ही तो लड़की है, उसे दूर नहीं ब्याहूंगी। सुरेश के साथ ब्याह होने पर, जब चाहूंगी, तब उसे देख सकूंगी।’
‘अच्छा प्रयत्न करूंगा।’
‘प्रयत्न नहीं, निश्चित रूप से करना होगा।’
पति नथ का हिलना-डुलना देखकर हंस पड़े। बोले,‘यही होगा जी।’
संध्या के समय पति मजमूदार के घर से लौट आकर गृहिणी से बोले,‘वहां विवाह नहीं होगा।।।।

मैं क्या करूं, बताओ उनके तैयार न होने पर मैं ज़बर्दस्ती तो उन लोगों के घर में लड़की को नहीं फेंक आऊंगा!’
‘करेंगे क्यों नहीं?’
‘एक ही गांव में विवाह करने का उनका विचार नहीं है।’
गृहिणी अपने मस्तिष्क पर हाथ मारती हुई बोली,‘मेरे ही भाग्य का दोष है।’

दूसरे दिन वह फिर सुरेश की मां के पास जाकर बोली,‘दीदी, विवाह कर लो।’
‘मेरी भी इच्छा है; परन्तु लड़का किस तरह तैयार हो?’
‘मैं छिपाकर सुरेश को और भी पांच हज़ार रुपए दूंगी।’

Prem Me Safalta ke Upay | प्रेम में सफलता पाने हेतु अचूक उपाय -uLtimate Gyan

रुपयों का लोभ बड़ा प्रबल होता है। सुरेश की मां ने यह बात सुरेश के पिता को जताई। पति ने सुरेश को बुलाकर कहा,‘सुरेश, तुम्हें यह विवाह करना ही होगा।’
‘क्यों?’
‘क्यों, फिर क्यों? इस विवाह में तुम्हारी मां का मत ही मेरा भी मत है, साथ-ही-साथ एक कारण भी हो गया है।’

सुरेश सिर नीचा किए बोला,‘यह पढ़ने-लिखने का समय है, परीक्षा की हानि होगी।’
‘उसे मैं जानता हूं, बेटा! पढ़ाई-लिखाई की हानि करने के लिए तुमसे नहीं कह रहा हूं। परीक्षा समाप्त हो जाने पर विवाह करो।’
‘जो आज्ञा!’
अनुपमा की माता की आनन्द की सीमा न रही। फ़ौरन यह बात उन्होंने पति से कही। मन के आनन्द के कारण दास-दासी सभी को यह

बात बताई। बड़ी बहू ने अनुपमा को बुलाकर कहा,‘यह लो! तुम्हारे मन चाहे वर को पकड़ लिया है।’
अनुपमा लज्जापूर्वक थोड़ा हंसती हुई बोली,‘यह तो मैं जानती थी!’
‘किस तरह जाना? चिट्ठी-पत्री चलती थी क्या?’

‘प्रेम अन्तर्यामी है! हमारी चिठ्ठी-पत्री हृदय में चला करती है।’
‘धन्य हो, तुम जैसी लड़की!’
अनुपमा के चले जाने पर बड़ी बहू ने धीरे-धीरे मानो अपने आप से कहा,‘देख-सुनकर शरीर जलने लगता है। मैं तीन बच्चों की मां हूं और यह आज मुझे प्रेम सिखाने आई है।’

*शरतचंद्र*

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